बनारसी


बनारस का नाम सुनते ही सबसे पहले मन मे क्या आता है?घाट या फिर धार्मिक स्थल या फिर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय यही तीन आते होंगे जहाँ तक मुझे लगता है।बनारस को विश्वव का प्राचीनतम शहर माना जाता है।बनारस को समय-समय पे नए नाम तो मिलते गए लेकिन वो अपना पुराना मिज़ाज नही बदल पाया।आज भी जब मैं बनारस जाता हूँ तो मुझे उसमे कोई शहर नही बल्कि एक गाँव नजर आता है।एक ऐसा गाँव जहाँ आज भी मानवीय मूल्यों की ईज्जत की जाती है और एक ऐसा शहर जो अपने धार्मिक मान्यताओं के चलते पूरे विश्वव में हिन्दू धर्म का आज भी प्रतिनिधित्व करता चला आ रहा है।घाटों के बारे में सब कुछ लिख के बताया ही नही जा सकता।बस इतना समझ लीजिए कि अगर मजनू बनारस का होता तो एक बार लैला के बिना जीवन की कल्पना कर सकता था लेकिन बनारसी घाटों के बिना नही।बनारसी पान तो शायद आप सब जानते ही होंगे।मुझे याद है जब मैं पहली बार बनारस जा रहा था तो पूरे रास्ते मे मैंने सात बार पापा से पूछा था की "पानवा कहाँ मिली?"(पान कहाँ मिलेगा?)।खैर कोई बात नही फिर वापस घाट पे आते है।

मैं जब पिछली बार गया था तो बनारस कुछ बदला-बदला सा लग रहा था।सड़के तो पुरानी ही थी लेकिन रोड लाइट नए लगे हुए थे।स्टेशन तो पुराना ही था लेकिन साफ-सफाई कुछ बढ़ा हुआ था।मंदिर तो वही था लेकिन अब कुछ रुपये देकर आप बिना लाइन में लगे भगवान के दर्शन कर लेते थे और रूपए देने के बदले में आपको बाकायदा मंदिर प्रशासन का राशिद भी मिलता था जिसका मतलब था की ये काम गैरकानूनी नही है।मैं जब गया था उस समय अभी काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर का कार्य शुरू नही था।अब तो सुनने में आ रहा है कि प्रधानमंत्री का "ड्रीम प्रोजेक्ट" काशी-विश्वनाथ कॉरिडोर का कार्य जोर-शोर से चल रहा है।
मैं जब पिछली बार बनारस गया हुआ था तो मैं अकेला था।अस्सी घाट पे पूरा दिन मैंने बिता दिया।कभी चिड़ियों के साथ 'सेल्फी' तो कभी नावों में बैठ के घूमना।एक बारी तो गंगा उस पार भी हो आया।उस पार का नजारा कुछ अलग ही था।गंगा वाकई में "माँ गंगा" लग रही थी अर्थात पानी साफ था।फिर वही बालू पे बैठ कर मोदी जी के "नमामि गंगे योजना" के बारे में सोचने लगा।'उमा भारती' से लेकर ना जाने कितने राजनीतिक चेहरे सामने आए जो समय-समय पे गंगा को फिर से माँ गंगा बनाने की केवल बात ही करते रहे।मुझे वही कुछ विदेशी भी दिखे।वो मेरे लिए अजूबे थे और मैं उनके लिए।मैं दो-चार मिनट उनको देखता रहा फिर नाव से गंगा इस पार आ गया।फिर अस्सी घाट से मैं तुलसी घाट चला गया कुछ देर वहाँ रुकने के बाद मैं काशी विश्वनाथ मंदिर चला गया।वहाँ की संकीर्ण गलियों में घूमते-घूमते कब रात हुआ पता ही नही चला......।
-Mohit kumar singh

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