प्रधान जी

कहानी पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव से होकर गुजरती है।उसी छोटे से गाँव के रहने वाले थे प्रधान जी।अरे नही-नही प्रधान जी उनका नाम नही था बल्कि उनका पद था।आमतौर पे हमारे पूर्वांचल के गाँव मे बसने वाले लोग एक-दूसरे को उनके नाम से नही बल्कि उनके काम से जानते है और इसी के कारण कोई सिपाही जी तो कोई मास्टर साहब तो कोई जीवन भर प्रधान जी बन जाता है।प्रधान जी की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है।हमारे प्रधान जी बचपन से ही नेता बनने का शौक रखते थे।ऐसा नही है कि केवल शौक रखते थे बल्कि छात्र जीवन से ही राजनीति में सक्रिय भी थे।ज्ञान का तो पूछिये मत किसी विषय पे बोलना शुरू कर देते थे तो बड़े-बड़े वक्ता भी उनके सामने पानी भरते नज़र आते थे।डरना तो जैसे उन्होंने कभी सीखा ही नही।छात्र जीवन में ही इलाके के अच्छे-अच्छे बदमाशों से चार-चार हाथ कर चुके थे और अब तो इलाके भर के बदमाश भी उन्हें प्रधान जी कहकर संबोधित करते थे।गाँव मे प्रधान जी के पास अच्छी-खासी खेती थी औऱ फिलहाल यही उनके रोजमर्रा के खर्चो को चलाने वाला एकमात्र साधन भी था।
प्रधान जी घर-गृहस्थी वाले व्यक्ति थे।दो बेटों औऱ एक बेटी के साथ-साथ  उनकी पत्नी को मिला लें तो घर मे प्रधान जी के अलावा चार और सदस्य थे।प्रधान जी रोज तड़के उठकर सबसे पहले पूरे गाँव का एक चक्कर लगा के आते थे।इससे प्रधान जी को दो-दो फायदा होता था एक तो उनके शरीर के लिए ये फायदेमंद था और दूसरा सुबह-सुबह पूरे गाँव की खोज-खबर भी ले लेते थे।गाँव का चक्कर लगा के आने के बाद स्नान और पूजा-पाठ पे कुछ समय व्यतीत करते थे।इसके बाद प्रधान जी पूरे दिन भर का भोजन एक ही समय अपने पेट मे भर लेते थे।शायद इसलिए भी वे नाश्ता के बदले भर पेट भोजन करते थे कि पता ना दिन में फिर फुर्सत मिलेगा या नही।इसके बाद प्रधान जी पास वाले चौराहे के एक दुकान पे जा के बैठ जाते थे।वही बैठे-बैठे कभी चाय तो कभी पान समय-समय पे मँगवा के खाया करते थे।दिन भर ईधर-उधर की बाते और शाम को फिर अपने घर लौट के आना यही प्रधान जी की दिनचर्या सालो से बनी हुई थी।प्रधान जी का उपनाम भी इतनी आसानी से नही मिला बल्कि इसके लिए उन्होंने अच्छा-खासा संघर्ष किया था।छात्र जीवन की समाप्ति के तुरंत बाद ग्राम पंचायत के चुनावों में किस्मत आजमाया लेकिन सफलता नही मिली।इसके बाद से ही प्रधान जी को ये उपनाम मिला।प्रधान जी का असली नाम माणिक राय था जो केवल और केवल कागज पे लिखने के काम ही आता था।
बड़ा बेटा अब पढ़ाई पूरी कर के नौकरी करने लायक हो गया था।प्रधान जी के दिल मे अभी भी ये उम्मीद थी की जब बेटा कमाने लगेगा तो वो फिर ग्राम पंचायत के चुनाव में किस्मत आजमाएंगे।खैर सब ठीक-ठाक जा रहा था।बड़े बेटे को कुछ ही दिन में अच्छी नौकरी मिल गई।बड़े बेटे की शादी के लिए दूर-दूर से लड़की वाले आने लगे।लगे हाथ प्रधान जी ने बेटे की शादी भी तय कर दी।छोटा बेटा भी अब उच्च शिक्षा के लिए शहर चला गया था।बेटी भी समय के साथ बड़ी होती जा रही थी और गाँव के ही एक विद्यालय में अध्ययन कर रही थी।बेटे के शादी को लेकर प्रधान जी बहुत ही उत्साहित थे।हो भी क्यो ना!पहले लड़के का शादी जो कर रहे थे।बड़ी धूमधाम से बेटे का शादी होता है।दहेज में गाड़ी से लेकर पलंग तक सबका माँग उन्होंने पहले ही कर दिया था।खैर शादी अच्छे से सम्पन्न हुआ।शादी के बाद बड़ा बेटा वापस फिर से बाहर चला गया।कुछ समय बाद बड़ा बेटा अपनी पत्नी को भी गाँव से दूर अपने पास ले गया।प्रधान जी चाहते हुए भी उन्हें रोक नही पाए।छोटा बेटा भी पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी करने लगा और शादी होते ही वो भी बड़े भाई के रास्ते पे निकल गया।अब प्रधान जी बस बेटी की शादी के चिंता से मरे जा रहे थे।आखिर एक दिन बेटी भी उनसे विदा होकर अपने ससुराल चली गयी।अब घर पे केवल प्रधान जी और उनकी पत्नी ही बचे हुए थे।ऐसा नही था कि बेटो ने प्रयास ही नही किया प्रधान जी को अपने साथ रखने का बल्कि हर बार प्रधान जी खुद ही रहना पसंद नही करते थे।प्रधान जी गाँव में खुले आसमान के नीचे सोते थे शहर का वो पँखा उन्हें भाया ही नही।सुबह-सुबह उठकर खेत-खलिहान घूमने वाले प्रधान जी को शहर का वो पार्क भाया ही नही।सबसे बड़ी समस्या थी कि उन्हें अपनी बहुओं का आचरण भी अपने प्रति अच्छा नही लगता था।धीरे-धीरे उनकी पत्नी और बहुओं के बीच मतभेद और बढ़ा तब से उन्होंने गाँव को ही ज़िन्दगी भर के लिए अपना आशियाना मान लिया था।बेटे छुट्टियों के समय कुछ दिनों के लिए गाँव आते थे।कुछ समय बाद प्रधान जी बाबा भी बन गए।बड़े बेटे के घर एक नन्हे बेटे का आगमन हुआ था।प्रधान जी और उनकी पत्नी खबर मिलने के बाद इतने खुश थे कि रात को ही गाँव के पास से ट्रेन पकड़ के अपने पोते को देखने निकल पड़े।सुबह वो लोग शहर पहुँच भी गए।पोते के लिये प्रधान जी ने ढेर सारा खिलौना और कपड़ा खरीद लिया मानो जैसे पोते को अब पूरी बचपन खिलौने खरीदने की ज़रूरत ही नही पड़ेगी।कुछ दिन वहाँ रहने के बाद प्रधान जी और उनकी पत्नी फिर वापस गाँव आ गए।अब बेटे भी पहले की तरह जल्दी-जल्दी गाँव आना भी छोड़ चुके थे।इस बार तो हद ही हो गयी।दोनों बेटे छुटियों में भी गाँव नही आ रहे थे।धीरे-धीरे साल दर साल बितता गया और प्रधान जी की उम्र भी अधिक होने लगी।प्रधान जी अभी भी उसी दीवानगी के साथ जीते थे जैसे सालो पहले।छोटे लड़के के घर तो दो-दो बार खुशियां आ चुकी थी।एक बेटा और एक बेटी के आगमन से छोटे बेटे की ज़िंदगी भी खुशी-खुशी कट रही थी।बेटी भी अपने ससुराल में खुश थी और प्रधान जी ये सब सोच के ही खुश रहा करते थे।
उम्र अधिक होने के कारण प्रधान जी को अब अपने स्वास्थ्य पे ज़्यादा ध्यान देना पड़ता था।समय के साथ-साथ अचानक एक दिन प्रधान जी की तबियत बिगड़ने की सूचना पूरे गाँव को मिली।जाड़े का समय था और प्रधान जी आँगन के बीचों-बीच खाट पे लेटे-लेटे धूप शेक रहे थे।घर के अगल-बगल वाले प्रधान जी का तबियत पूछने के लिए अभी घर मे आये ही थे कि प्रधान जी ने लेटे-लेटे ही उनसे उनकी तबियत के बारे में पूछना शुरू कर दिया।उसके बाद अपने स्वभाव के मुताबिक पूरे गाँव की खोज-खबर ले ली प्रधान जी ने।शाम का वक़्त हो चला था। बड़े बेटे ने फ़ोन पर प्रधान जी से बात किया और फिर उन्होंने पोते से बात करने की इच्छा जताई।इसके बाद छोटे बेटे के पास भी उन्होंने फ़ोन मिलवाया और अपने दोनों पोते और पोती से बात की।रात को हल्का सा खाना खाने के बाद सोने के लिए कमरे के खाट पे लेट गए।हर दिन की भाँति सुबह उठे और गाँव का चक्कर मारने के लिए घर से निकले।हर दिन की भाँति वो वापस तो आये लेकिन खुद चल के नही बल्कि लोगो ने उठा कर लाया।प्रधान जी का शरीर गाँव के पीपल के पेड़ के पास पड़ा हुआ था।लोग बता रहे थे कि चक्कर आने पे वे पेड़ के निचे बैठ गए और ऐसे बैठे की फिर उठे ही नही।
प्रधान जी आज भी जिंदा है वहाँ के बच्चो में।आज भी जिंदा है वहाँ की कहानियों में।आज भी ऐसी मान्यता है कि वो गाँव के प्रधान है और अभी भी पूरे गाँव की रक्षा करते है।गाँव के बड़े बुजुर्ग से लेकर बच्चो तक में प्रधान जी इस कदर घुले हुए है जैसे मानो प्रधान जी कभी मरे ही ना हो।उनका घुलनशील स्वभाव आज भी पूरे गाँव को एक-दूसरे से जोड़ के रखने का कार्य बखूबी करता है।
-Mohit kumar singh
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